जैन समाज, शासन, धर्म और संस्कृति में जैन तीर्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन इतिहास तथा उपदेश कहने में तीर्थों की महती भूमिका होती है। तीर्थ मनुष्य की आत्मा को उन्नत और निर्मल बनाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए मनुष्य को तीर्थों की यात्रा करना चाहिए। तीर्थ हमारी निष्ठा और श्रद्धा का सर्वोपरि मापदण्ड हैं, तीर्थों के द्वारा हम अतीत के अध्यात्म को देख सकते हैं। संसार के सभी धर्म तीर्थों की सार्थकता को स्वीकार करते हैं। संसार का प्रत्येक धर्म तीर्थ से जुड़ा है। बिना तीर्थ के किसी भी धर्म का कोई अतीत नहीं हो सकता। जैन धर्म के चैबीस तीर्थकरो से सम्बन्धित उन स्थलों को जहाँ पर उनका जन्म हुआ, उन स्थानों को जहाँ उन्होंने अपना जीवन व्ययतीत किया तथा उपदेश दिए आदि को तीर्थ माना गया है। तीर्थों की स्थापना का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक ही रहा है। तीर्थ-स्थानों का साधना और उपासना के लिए अधिक से अधिक उपयोग किया जाना चाहिए ताकि वहां के वातावरण से सभी आनन्दित हो सके।
जिन प्रभासूरि, ज्ञातधर्मकथा तथा आवश्यक निर्युक्ति आदि प्राचीन जैन ग्रंथों में अहिच्छत्रा का उल्लेख एक प्रमुख जैन तीर्थ के रूप में हुआ है। इन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि एक समय पार्श्वनाथ छद्दम अवस्था में यहां विहार करते हुए आए और नगर के बाहर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानावस्थित हो गए। उसी समय उनके बैरी कमठ ने अपनी शक्ति से बादलों से घनघोर वर्षा प्रारम्भ कर दी। वर्षा का जल चारों ओर फैल गया और पार्श्वनाथ की नासिका तक पहुंच गया तब धरणेन्द्र जिनकी उन्होंने पहले रक्षा की थी वहाँ आया और अपने फनों का उनके ऊपर छत्र-रूप में फैलाकर उनकी रक्षा की। उसी समय इस नगरी का नाम अहिच्छत्र पड़ा। यहां पार्श्वनाथ के दो चैत्य तथा नेमिनाथ का एक चैत्य मिलता है।
काम्पिल्य को दक्षिण पांचाल की राजधानी बतलाया गया है। जैन परम्परा के अनुसार तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का यहाँ जन्म हुआ था इसलिए यह जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जैनों की श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जैनों के मूल सिद्धान्तों की प्रामाणिकता में शंका प्रकट करने वाले या भिन्न प्रकार से उनका अर्थ बतलाने वाले श्रमण को निह्नव कहा जाता है। जैनियों में कुल सात निह्नव का उल्लेख मिलता है। कौण्डिय का शिष्य अश्वमित्र चतुर्थ निह्नव हुआ था। वह भ्रमण करते हुए इस नगरी आया था। पृृथ्वी के महान राजा को चक्रवर्ती कहा जाता है। जैन मान्यताओं में 12 तीर्थंकर राजाओं की कल्पना की गयी है। इसमें दसवें हरिषेण एवं बारहवें ब्रम्हदत्त इस नगरी से सम्बन्धित थे। काम्पिल्य की पहचान उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद जनपद के कायमगंज रेलवे स्टेशन के पास स्थित वर्तमान काम्पिल्य से की जाती है। यहाँ जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों के अलग-अलग जिनालय है। जहाँ के जिनालयों में रखी हुई जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ कला की दृृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यहाँ से प्राप्त अनेक पुरावशेष लखनऊ, संग्रहालय में सुरक्षित है।
कौशाम्बी वत्स जनपद की राजधानी थी। जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप में इस नगरी का उल्लेख किया हैै। भगवान गौतम बुद्ध और महावीर का इस नगरी में आगमन हुआ था। इस नगरी में छठें तीर्थंकर पदमप्रभ ने जन्म, दीक्षा तथा ज्ञान प्राप्त किया था। यहीं महावीर स्वामी की प्रथम शिष्या चन्दनबाला और रानी मृृगावती श्रमण धर्म में दीक्षित हुई थीं। साध्वी चन्दनबाला महावीर के श्रमणी संघ की प्रधान थी। यहाँ अनेक चैत्य हैं जिनमें सुन्दर-सुन्दर जिन प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। यहाँ स्थित पदमप्रभ के जिनालय में महावीर स्वामी को पारणा कराती हुई चन्दनबाला की एक प्रतिमा रखी है। कोसम और उसके आस-पास के क्षेत्रों से बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाएँ, तोरण, मानस्तम्भ और आयागपटट प्राप्त हुए हैं। इनमें अधिकतर स्थनीय संग्रहालयों में सुरक्षित हैै। चैदहवीं शदी में यह स्थल जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध था। परन्तु बाद में मुस्लिम शासकों ने इसको नष्ट कर दिया। इस नगरी को इलाहाबाद के पास स्थित कोेसम नामक नगर से पहचाना जाता है। यहाँ श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के अलग-अलग जिनालय स्थापित किए गए हैं।
जैन परम्परा में प्रयाग का उल्लेख मिलता है। यह गंगा-यमुना के संगम पर स्थित है। यह हिन्दुओं का भी प्रमुख तीर्थस्थल है। जैन ग्रंथों में इस नगरी के प्रयाग नामकरण के सम्बन्ध में अलग-अलग कथाएँ प्राप्त होती हैं। आचार्य जिनप्रभसूरि ने कल्पदीप में इस तीर्थ की उत्पत्ति का सविस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें कहा गया है कि यहाँ ऋषभदेव और शीतलनाथ के चैत्यालय हैं। कल्पप्रदीप में पाटलिपुत्रकल्प के अन्तर्गत अन्निकापुत्राचार्य की कथा में कहा गया है कि पुष्पभद्रपुर में एक बार गंगा नदी पार करते हुए अन्निकापुत्राचार्य ने कैवल्य प्राप्त किया और वहीं उनका निर्वाण भी हुआ, इसलिए यह स्थान प्रयाग नाम से प्रसिद्ध हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार आदिनाथ ने कैवल्य प्राप्त होने पर यहाँ पर अपनी प्रजा को सम्बोधित किया, तत्पश्चात प्रजा ने उनकी पूजा की और इसलिए यह स्थान प्रयाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पूर्व मघ्यकाल में इस क्षेत्र में जैन धर्मावलम्बियों की उपस्थित के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं पर सम्भवतः मुस्लिम शासकों की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण यह नष्ट कर दिए गए।
मथुरा नगरी शूरसेन जनपद की राजधानी थी। जैन साहित्य में मथुरा का विस्तृृत रूप से उल्लेख हुआ हैै। आचार्य जिनप्रभसूरि ने कल्प प्रदीप के अन्तर्गत इस नगरी का एक जैन तीर्थ के रूप में वर्णन किया है। मथुरा में हुए उत्खनन के परिणामस्वरूप एक स्तूप और दो मन्दिरों के खंडहर प्राप्त हुए हैं। इन खण्डहरों से बड़ी संख्या में मूर्तियां, उनके सिंहासन और आयागपट््ट मिले हैं। यहाँ से प्राप्त पुरावशेषों से ज्ञात होता है कि दूसरी शताब्दी ई0 पू0 से लेकर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी तक यह नगरी जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र रही। मूर्तियों के सिंहासनों और आयोगपटटो पर जो लेख मिले हैं उनमें से कुछ पर कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव आदि कुषाण नरेशों के नाम तथा उनके राज्यकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इन लेखों में अनेक गण, कुल और शाखाओं के नाम आए हैं जो कल्प सूत्रों की स्थविरावलीके गण, कुल और शाखा के समान हैं। यहाँ से प्राप्त लेखों में गणिका, नर्तकी, लुहार, गन्धिक, सुनार, ग्रासिक तथा श्रेष्ठी आदि जाति के उन लोगों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने मूर्ति आदि का निर्माण, उनकी स्थापना तथा दान आदि इन लेखों से यह भी स्पष्ट होता है कि उस समय लोग अपने व्यक्तिवाचक नामों के साथ माता का नाम जोड़ते थे। श्वेताम्बर जैन साहित्य में मथुरा से सम्बन्धित अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों के नाम मिलते हैं। इनमें कालवेशिक मुनि, राजर्षिशंख, आर्य मंगु, आर्य रक्षित, साध्वी कुबेरा, मिथ्यादृृष्टि पुरोहित इंद्रदत्त, वसहपुष्यमित्र, घृृतपुष्यमित्र, दुर्बलिकपुष्यमित्र, श्रेष्ठी जिनदत्त , श्रावक सुरेन्द्रदत्त आदि उल्लेखनीय हैं।
वाराणसी काशी जनपद की राजधानी और प्राचीन भारत का अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यापारिक केेन्द्र था। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन साहित्य में इस नगरी का विस्तृृत उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार सातवें तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ एवं तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का जन्म वाराणसी में ही हुआ था। यही कारण है कि इस नगरी को जैन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। सुपाश्र्वनाथ के पिता का नाम सुप्रतिष्ठ और माता का नाम पृथ्वी देवी था। पाश्र्वनाथ के पिता का अश्वसेन और माता का नाम वामा देवी था। वाराणसी के निकट सिंहपुरी मंे ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांशनाथ और चन्द्रपुरी में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ था। सिंहपुरी सारनाथ स्टेशन के निकट हीरामनपुर गाॅव के पास है। सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। कुछ विद्वानों का मानना है कि भगवान श्रेयांशनाथ के नाम से इस स्थल का नाम सारनाथ हो गया। चन्द्रपुरी नामक गाॅव सारनाथ से नौ मील तथा वाराणसी से चैदह मील दूर गंगा के तट पर स्थित है। यहाॅ पर दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के जैन मन्दिर स्थित हैं। जिनप्रभसूरि के विविध तीर्थकल्प में चन्द्रपुरी का उल्लेख मिलता है। वाराणसी में रहने वाले जयघोष और विजयघोष नामक दो ब्राह्मण भाइयों ने जैन मुनि से दीक्षा ग्रहण की थी। एक स्थान पर उल्लेख मिलता है कि वाराणसी के तिन्दुक उद्यान में रहने वाले बल नामक एक जैन मुनि ने ब्राह्मणों द्वारा किये गये उपहासों को सहन किया, बाद में ब्राह्मणों ने उनसे अपने कुकृत्यों के लिए क्षमा माॅगी। दण्डखात तालाब के निकट भगवान पाश्र्वनाथ का जन्म स्थान था। भगवान महावीर के समय वाराणसी जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। महावीर के बाद भी कई शताब्दियों तक वाराणसी में जैन धर्म का वर्चस्व रहा। वाराणसी में ब्राह्मणों के घरों में तथा वृक्षों के नीचे स्थित असंख्य जिन प्रतिमाएॅ मिलती है। यहाॅ आज भी अनेक पक्के तालाब हैं। दण्डखात तालाब के निकट पाश्र्वनाथ का मन्दिर जैनियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है, इसकी पहचान वर्तमान में भेलूपुर मुहल्ले में स्थिति पाश्र्वनाथ के मन्दिर से की जाती है। यहाॅ मन्दिर के जीर्णाेद्धार हेतु करायी जा रही खुदाई मंे भगवान पाश्र्वनाथ की एक भव्य एवं प्राचीन प्रतिमा तथा कुछ अन्य जैन प्रतिमाएॅ तथा कलाकृतियाॅ प्राप्त हुई हैं। भैदनी घाट पर श्री सुपाश्र्वनाथ भगवान के चार कल्याणक के जैन श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर है। रामघाट पर बना हुआ श्री चिन्तामणि पाश्र्वनाथ जी का मन्दिर विशाल व तीन मंजिला है। श्री गौड़ी पाश्र्वनाथ जिनालय सूतटोले में स्थित है, इसका निर्माण राजा वच्छराज नाहटा के वंशजों द्वारा किया गया था। कहा जाता है कि गंगातट से थोड़ी दूर स्थित इस स्थान पर भगवान् पाश्र्वनाथ का दीक्षा कल्याणक हुआ था। इनके अतिरिक्त बाबू बट्टूलाल जी नाहटा द्वारा नया घाट पर निर्मित श्री पाश्र्वनाथ भगवान जी का मन्दिर, बाबू मन्नूलाल का श्री आदिनाथ का मन्दिर, रामचन्द्र जी द्वारा निर्मित श्री आदिनाथ मन्दिर आदि वाराणसी के अन्य प्रमुख जैन स्थल हैं।
श्रावस्ती प्राचीन भारत की प्रसिद्ध नगरी थी। यह उत्तर-प्रदेश के बलरामपुर बहराइच रोड पर स्थित है। श्रावस्ती का दूसरा नाम कुणाल नगरी था। यह अचिरावती (राप्ती) नदी के किनारे बसी थी। सूत्रों में उल्लेख मिलता है कि इस नदी में बहुत कम पानी रहता था, इससे बहुत से प्रदेश सूखे रहते थे और जैन साधु इस नदी को पार कर भिक्षा के लिए जाते थे। जैन साहित्यकार विशेषकर जिनप्रभसूरि ने कल्प्रदीप में श्रावस्ती का विस्तृत विवरण किया है। उत्तरापथ के प्रमुख राज-मार्ग पर स्थित होने के कारण यह व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र थी। इसकी ख्याति चारों आर फैली हुई थी। जैन आगमों में श्रावस्ती के अनेक संदर्भ मिलते हैं। यहाॅ तीसरे तीर्थंकर भगवान सम्भवनाथ का जन्म हुआ था। इसलिए यह नगरी जैन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई। यहाॅ बड़ी संख्या में मन्दिरों, स्तूपों और बिहारों का निर्माण हुआ था। मौर्य सम्राट सम्प्रति ने यहाॅ बड़ी संख्या में मन्दिर स्तूप तथा बिहार बनवाए। संभवनाथ के बाद मुनि शान्तिनाथ एवं मुनिसुव्रत नाथ भी यहाॅ आये थे। महावीर स्वामी ने भी इस स्थान की कई बार यात्रा की थी तथा अपना दसवाॅ वर्षावास उन्होंने यहीं व्यतीत किया। यहाॅ के तिन्दुक नामक उद्यान में महावीर के अनुयायी गणधर गौतम और पाश्र्वनाथ के अनुयायी केशीकुमार के मध्य सैद्धान्तिक नियमों की चर्चा हुई थी। महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति जामालि जो कि महावीर जी का शिष्य भी था। वह यहाॅ स्थित कोष्ठक चैत्य में जैन सिद्धान्तों की सत्यता के सम्बन्ध में शंका प्रकट कर प्रथम निह्ननव हुआ था। इस स्थान पर खण्डहर की अवस्था में एक गहड़वाल कालीन मन्दिर स्थित है, जिसे शोभनाथ का मन्दिर कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों का विचार है कि शोभनाथ संभवनाथ का अपभ्रंश है। इस मन्दिर की खुदाई से कई तीर्थंकर मूर्तियाॅ मिली हैं। शोभनाथ के पास दो टीले हैं जिनमें एक का नाम पक्की कुटी व दूसरे का नाम कच्ची कुटी है। यहाॅ से प्राप्त प्रमिताओं में ग्यारह जिन मूर्तियाॅ अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हैं। वि.सं. 1112 की तिथियुक्त मूर्ति पर लांक्षन स्पष्ट न होने के कारण इसकी पहचान ठीक से नहीं हो सकी। अन्य मूर्तियाॅ विमलनाथ, सुमितनाथ, संभवनाथ एवं आदिनाथ की हैं। भगवान् आदिनाथ की मूर्ति शिल्प कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह पद्मासन में पीले पत्थर की है। मूर्ति अखण्डित है तथा उसके मस्तक पर सीधी कुंतल राशि की लटाए है और दोनों बाहुओं पर भी बालों के गुच्छे हैं। मूर्ति के पद्मासन भाग में भी अच्छी व सुन्दर नक्काशी की गयी है। एक भाग में तेइस तीर्थंकरों की छोटी-छोटी प्रतिमाएॅ बनी हैं। जिनप्रभसूरि ने यहाॅ सम्भवनाथ जिनालय होने तथा उसे अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति द्वारा नष्ट करने का उल्लेख किया है।
श्रावस्ती के उत्तर-पूर्व में नेपाल की तराई में केकय जनपद स्थित था। सेयविया केकय की राजधानी थी। केकय के थोड़े भाग में जैन धर्म का प्रसार हुआ था, सम्भवतः शेष भाग में खानाबदोश जातियाॅ निवास करती थी। जैन परम्परा के अनुसार यहाॅ महावीर के केवल ज्ञान प्राप्त होने के 214 वर्ष बाद तीसरे निह्नवन की स्थापना हुई।
यह अत्यधिक महत्वपूर्ण जैन तीर्थ है। यह पटना के दक्षिण में तथा गया के उत्तर में स्थित है। पावा और पुरी दो गांव हैं जो एक-दूसरे से एक मील की दूरी पर स्थित हैं। महावीर स्वामी ने निर्वाण पावा में प्राप्त किया था। यहाॅ पर तीन महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल महावीर स्वामी की देशना-भूमि, उनका निर्वाण स्थल तथा जल-मन्दिर स्थित है। महावीर स्वामी की देशना-भूमि में एक प्राची स्तूप और कुआ है। इस स्तूप में भगवान महावीर की चरणपादुका रखी थी। इन चरणपादुकाओं को यहाॅ से हटाकर जल-मन्दिर के निकट नए स्थान पर प्रतिष्ठापित कराया गया था। महावीर स्वामी का निर्वाण स्थल गावॅ-मन्दिर के नाम प्रसिद्ध है। भगवान महावीर के बड़े भाई नन्दिवर्धन ने निर्वाण स्थली मे चबूतरा बनाकर चरण स्थापित किए। उनके निर्वाण स्थल पर दीपावली का मेला मनाया जाता है। कहा जाता है प्रभु के निर्माण के बाद उनकी कमी को पूरा करने के लिए वहाॅ उपस्थित भक्त लोंगो ने उस रात्रि घी के दीपक जलाए। इन हजारों दीपकों से अमावस्या की घोर रात्रि प्रकाशित हो गयी, तभी से दीपावली का त्योहार का आरम्भ हुआ। प्रभु के निर्वाण स्थल का कई बार जीर्णोंद्धार किया गया मंदिर का जीर्णोद्धार करते समय मूल मन्दिर के नीचे दो अन्य मन्दिरों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यह मन्दिर प्राकृतिक आपदाओं के कारण नष्ट और जमीन के अन्दर दब गया होगा और उसी के ऊपर नया मन्दिर बनता गया। मुगल बादशाह शाहजहाॅ के समय इस गाॅव-मन्दिर का जीर्णोेद्वारा किया गया था। जिसका 21 पक्तियों का शिलालेख मन्दिर की दीवार पर लगा हुआ है। आज भी समय-समय पर मन्दिर के जीर्णोंद्वारा का कार्य करवाया जाता है। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनका अन्तिम संस्कार जल मन्दिर में हुआ था। इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि प्रभु के निर्वाण के पश्चात् निर्वाण स्थल में इन्द्र आदि अनेक देवता तथा महावीर स्वामी के असंख्य भक्त एकत्रित हुए। उन सबके द्वारा थोड़ी-थोड़ी पवित्र मिट्टी ले जाने के कारण इस स्थान पर एक बड़ा गड्ढा बन गया और धीरे-धीरे इस स्थान ने एक विशाल सरोवर का रूप धारण कर लिया। इसी सरोवर के मध्य जल मन्दिर स्थित है। पहले-पहले इस मन्दिर तक नौका द्वारा जाना पड़ता था पर अब लाल पत्थर का पुल भी बन गया है। जल मन्दिर में महावीर स्वामी की चरण पादुकाए विराजित है। इस चरण-पट्ट पर कोई लेख नहीं मिलता तथा ये अत्यन्त प्राचीन होने के कारण घिस-पिट गए हैं।
चम्पा में बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म हुआ था। भगवान महावीर के समय में चम्पा अंग देश की राजधानी थी। औपतातिक सूत्र (उववाई उपांग) में चम्पा नगरी का विस्तृत विवरण मिलता है। इसमें भगवान महावीर का चम्पा में चुतुर्मास करने का उल्लेख मिलता है। यहाॅ के महाराजा कोणिक और धारिणीरानी भगवान महावीर के परमभक्त थे। भगवान महावीर का अग्रश्रावक कामदेव यहीं हुआ था। उसके पास अट्ठारह करोड़ स्वर्ण मुद्राए एवं दस हजार गाए थीं।
प्राचीन काल में पांचाल समृद्धिशाली जनपद था। पांचाल देश को भागीरथी नदी दो भागों उत्तरी तथा दक्षिणी पांचाल में बांटती थी। महाभारत के अनुसार उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिच्छत्रा तथा दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। जैनों के तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ का जन्म यहीं हुआ था काम्पिल्य (फर्रूखाबाद जनपद का कांपिल) से बहुत अधिक संख्या मे जैन प्रतिमाए प्राप्त हुई हैं। कुछ मूर्तियों पर लेख भी खुदे हुए हैं। यहाॅ कई जैन मन्दिर भी प्राप्त हुए है। अहिच्छत्रा में धरणेन्द्र ने अपने फण से पाश्र्वनाथ की रक्षा की थी। जिनप्रभसूरि के विविध तीर्थकल्प में उल्लेख है कि यहाॅ ईटों का किला और मीठे पानी के सात कुंड थे जिनमें स्नान करने से स्त्रियाॅ पुत्रवती होती थी। नगरी के बाहर और भीतर अनेक कुएं, बावड़ी आदि बने थे जिनमें नहाने से कोढ़ आदि रोग दूर हो जाते थे।